चक्राकार प्लाट
चक्कर में चक्कर चले, चलता चक्कर खाय ।
चक्कर चाले प्लाट का, सारा ही धन जाय |।
सारा ही धन जाय, तब खाय दिमाग चक्कर ।
संभल-संभल कर चले, तो लगे प्यारे टक्कर ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, काट डाक्टर के चक्कर।
मिटा सारे चक्कर, छोड़ो प्लाट का चक्कर ।
शब्दार्थ: चक्कर = चक्राकार/परेशानी, चाले = चलना
भावार्थ:
चक्राकार भूखण्ड में बड़े-बड़े चक्कर पड़ते रहते हैं। भूमि-विवादों में धन का अपव्यय होता रहता है। धन हीन होते ही दिमाग चक्कर खाने लगता है। दुर्भाग्य के कई चक्कर एक साथ चालू होते हैं, यथा संभल-संभल कर चलने पर भी वाहन दुर्घटना हो जाना।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि दुर्घटना होने के बाद डाक्टरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इन सभी चक्करों से मुक्ति पाने के लिए एक ही उपाय यह है कि तुम ऐसे चक्राकार प्लाट खरीदने का चक्कर ही छोड़दो। यदि पहले से ही चक्राकार है तो उसे वर्गाकार बनाकर आप सदैव प्रसन्न रहें।
वास्तुशास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
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