पंच अंगुल
बने हाथ ऐसा कभी, ऊपर स्वस्तिक होय ।
पंच अंगुल तले रहे, कछु ढोलक सा होय ।।
कछु ढोलक सा होय, दे हाथ कर्म-सन्देश ।
पंच तत्व का चिह्न, रिद्धि-सिद्धि का यह देश् ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, अपने मेहमान आय ।
गौरी पीठी लेय, पीठ-पीठ हाथ बनाय ।।
शब्दार्थ: गौरी = समधी की पत्नी, पीठी = चावल हल्दी का घोल जो पीठ पर लगाया जाता है,रिद्धि-सिद्धि = आध्यात्मिक तथा भौतिक सम्पन्नता देने वाली शक्तियां
भावार्थ:
चार अंगुलियां व अंगुष्ठ पंच तत्व के प्रतीक हैं, जिसे कई सदियों से हम अतिशुभ मानते आ रहे हैं। स्वस्तिक के नीचे पंचांगुल होने से आकृति कुछ-कुछ ढोलक सीहो जाती है। पंचांगुल का चिह्न जीवन को निष्काम कर्म-संदेश भी देता है। परमार्थ-भावना से किए गए सद्कर्मों द्वारा शीघ्र ही रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति कराने वाला हमारा यह चिन्ह सारे जग में निराला है।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि पंचांगुल की लोकप्रियता बहुत पुरानी है। हमारे घरों पर जब सामाजिक कार्यों में प्रिय मेहमान आते हैं तब प्रेम-निशानी के तौर पर पीठी अथवा रंग से भरे हाथ की उनकी पीठ पर जोरों से मारी जाती है। पंचांगुल का यह निशान आपने वह फंक्शन अटैंड किया व जितने दिन वहां ठहरे यह उन दिनों की आपकी महिला अधिकारी द्वारा की गई अटेस्टेड ऑन ड्यूटी भी है। तो ऐसे ही कार्यों में सिद्धहस्त हैं।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें