वास्तुशास्त्र एवं आवास


जीवन के है बस तीन निशान रोटी, कपड़ा और मकान यानि की जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में मकान 33 प्रतिशत पर काबिज है। आदि मानव के सतत् सक्रिय मस्तिष्क की शाश्वत चिंतन प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप ही विभिन्न प्रकार के विषयों में उसका दैनिक अनुभव जन्य ज्ञान दिनोंदिन परिष्कृत परिमार्जित एवं नैसर्गिंक अभिवृद्धि करता हुआ चन्द्रकालाओं की भाॅति अब तक प्रतिक्षण प्रगतिशील रहा एवं रहेगा।
गुफाओं, कंदराओं में बैठे-बैठे आदि मानव ने युगों-युगों तक चिंतन, मनन, विचार-विमर्श करता हुआ कई ठोस जीवनोपयोगी वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने कुछ आवासीय नियम बनाये यहीं से प्रारम्भ हुए भाषा, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत, न्याय, नीति आदि विभिन्न विषयों के बीच नवग्रह की अंगूठी के हीरे की भाॅति वास्तुशास्त्र ने भी अपना सम्मानीय स्थान बनाया। भारतीय वास्तुशास्त्र ही विश्वविख्यात अध्यात्म का रूपान्तरित नवीन दृष्टिकोण है। जो ज्योतिष शास्त्र का अभिन्न सहोदर है। आकाश, वायु, जल, पृथ्वी और अग्नि इन पाॅच तत्वों से मनुष्य ही नहीं समस्त चराचरों का निर्माण हुआ है। हर तत्व की प्रगति को गहनता से समझकर कोटि-कोटि वास्तु सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए। समाज में हर तबके के व्यक्ति के लिए मकान की लम्बाई, चैड़ाई, गहराई, ऊँचाई निकटवर्ती वनस्पति, पर्यावरण, देवस्थान, मिट्टी का रंग, गंध विभिन्न कई बिन्दुओं को दृष्टिगत रखते हुए सतत् अनुकरणीय सिद्धान्तों की रचनाएं की ताकि समाज में निम्न, मध्यम और उच्च सभी वर्गों के व्यक्ति स्वस्थ रहते हुए शतायु हो सके। यहां यह कहना न्याय संगत नहीं होगा एवं सम्भव है कि वास्तु सिद्धान्तों से कौन व्यक्ति कितना लाभान्वित हुआ और होगा। क्योंकि बुखार को नापने वाले थर्मामीटर की भाॅति मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं, अनुभूतियों को नापने वाले उपकरण ना तो बने ना बन सकेंगे।
यह सुख-दुःख की अनुभूतियाॅ मूक पशु-पक्षियों की बहती हुई अश्रुधारा एवं गूंगे के गुड़ की भाॅति अवर्णनीय शब्दातीत एवं कल्पनातीत है। पाश्चात्य के चमकीले, लुभावने 200 से अधिक टी.वी. चैनल्स के बीच आज का मानव असमंजस्य के प्लेटफार्म से पिसलन भरी राहों पर सतरंगीय चश्मा लगाकर ईष्या के पावं से अनंत प्रतिस्पर्धा में दौड़ता हुआ नीत नये टेंशन में दिखाई देता है। यह सभी वास्तु, ज्योेतिष, अध्यात्म, धर्म, गीत, संगीत, भोजन, निंद्रा आदि अनेक पहलुओं के समग्र असंतुलन का ही विकृत रूप है। वास्तु के मूल सरल सिद्धान्तों को नव निर्माणाधीन भवनों में तो आसानी से अपनाया जाना संभव है एवं निर्मित भवनों में आंशिक परिवर्तनोंपरान्त सुखद परिणाम प्राप्त किये जा रहे है। वास्तु शास्त्र के मूल सिद्धान्तों का सरलीकरण करते हुए जन सामान्य के लिए उसे रौचक, पठनीय एवं अनुकरणीय बनाने के क्रम में कुण्डली काव्य में स्वरचित प्रथम पुस्तक ‘‘शिल्पकला पर 100 कुण्डलीयाॅ’’ जिसमें मूल सिद्धान्त कुण्डली काव्य में वर्णित है साथ ही कुण्डलियां शब्दार्थ सरल व्याख्या एवं रौचक चित्रांकन युक्त 107 कविताओं की हास्य शैली प्रधान शीघ्रातिशीघ्र बारम्बार स्वतः स्मरणीय पठनीय पुस्तक है।

वास्तुशास्त्री - कवि अमृत ‘वाणी’

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शिल्प कला पर सो कुंडलिया "लेखकीय"

शब्द द्वारा विश्व के सभी देवी-देवताओं को नमन एवं धरतीमाता को साष्टांग दण्डवत् करते हुए वास्तुशास्त्र विषय की इस पुस्तक के बारे में कुछ इस प्रकार निवेदन करना चाहँूगा कि वास्तुशास्त्र सैकड़ों नहीं हजारों वषो पुराना होकर हमारे वैदिक ज्ञान-भण्डार का अतिमहत्त्वपूर्ण भाग रहा है। देव-दानव नामक दो विपरीत संस्कृतियाँ सृष्टि के आदि काल से ही साथ-साथ चलती आ रही हैं। हर युग में मानव-जीवन के इस तराजू में पहले पाप का पलड़ा भारी हुआ, फिर देव अवतार का अतिरिक्त बाट लगने से पुण्य का पलड़ा भारी हुआ। इस प्रकार तराजू के पलड़ों का यह अप-डाउन चलता ही रहा और चलता रहेगा।
धार्मिक साहित्य में अथर्ववेद,स्कन्दपुराण,गरुड़पुराण,वायुपुराण, अग्निपुराण, मत्स्यपुराण, नारदपुराण में वास्तु-सिद्धान्तों का भरपूर वर्णन मिलता है। बौद्ध व जैन धर्म की पुस्तकों के साथ-साथ रामायण,महाभारत,कौटिल्य का अर्थशास्त्र,पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे प्राचीन ग्रंथों में जगह-जगह पर वास्तु सिद्धांतों के दीपक प्रकाश-स्तम्भ की भाँति हर मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं।
इनके अतिरिक्त भी वास्तु के प्रमुख ग्रंथों में विश्वकर्मा प्रकाश, शिल्प संग्रह, मय मत, राजवल्लभ, मानसार, वास्तुरत्नावली, शिल्प रत्न, चित्र लक्षण, रूप मण्डन, समरांगण, मुहूर्त मार्तंण्ड, हलायुध कोष, वृहद् वास्तुमाला, नारद संहिता, भुवन प्रदीप आदि ग्रंथों में वास्तु के अनुपम सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
आदि काल से ही विश्व का प्रत्येक प्राणी अपने लिए एक आरामदायक आवास का आकांक्षी रहा है। सही विधि से पर्याप्त परिश्रम करने वालों को इस कार्य में सफल होते देखा गया है। चिड़िया, कबूतर, कौए आदि वृक्षों पर घोंसला बनाते हैं तो तोते वृक्षों को खोद-खोद कर अपनी कोटर बना लेते हैं। भँवरा कमल के पत्तों में ही विश्राम करता है, तो चूहे अपना बिल व संाप अपनी बांबी बना-बना कर रहते आए हैं। जंगल का राजा शेर पर्वतों में अपनी गुफाएँ ढूँढ़ ही लेता है। हमारे पूर्वज, श्रेष्ठ वानरों ने जब पेड़ की डालियों पर बैठे-बैठे समस्त प्राणियों को अपने-अपने आवास में ज्यादा सुरक्षित देखा तब निश्चित ही कुछ मेहनती बंदरों ने पर्णकुटी, झोपड़ियों आदि का निर्माण- कार्य प्रारंभ किया होगा। भवन-निर्माण, कृषि, आखेट आदि कार्य करते हुए वे
धीरे-धीरे मनुष्य बन गए, और शेष आलसी बंदर आज भी उसी रूप में रह गए।
निर्माण-कार्य की प्रबल इच्छा शक्ति के साथ ही वास्तुशास्त्र का जन्म हुआ। ऋषि-मुनियों ने तप-बल, योग-बल व अनुभव से सहस्रों वास्तु- सिद्धांत मानव जाति को दिए। यह ज्ञान अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में
रहा है। संसार के प्रथम राजा पृथु की समकालीन घटना है कि राजा पृथु पृथ्वी को समतल करना चाह रहे थे। भयभीत पृथ्वी ने गाय का रूप धारण कर स्वर्ग में जाकर ब्रह्माजी से निवेदन किया कि मेरा कष्ट दूर करें। उसी समय राजा पृथु भी वहाँ पहुँच कर कहने लगे मैं राजा हँू , स्थापत्य कार्य कैसे करूँ र्षोर्षो समस्या का हल निकालते हुए ब्रह्माजी ने विश्वकर्मा को बुलवाया और संसार के निर्माण का कार्य उन्हें सौंपा। विश्वकर्मा देेवपुरियाँ तथा अमरावती के निर्माण कार्यों में व्यस्त थे, उन्होंने मृत्युलोक के लिए भी कई सारे वास्तु-सिद्धांत बनाए। मय राक्षसों के एवं विश्वकर्मा देवताओं के प्रथम वास्तुविद् थे, जो भूवासियों के लिए भी प्रथम वास्तुविद् हुए। विश्वकर्मा प्रभासवसु के पुत्र एवं देवगुरु बृहस्पति के भांजे थे।
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उक्त वास्तुकारों द्वारा अनेक अद्भुत ईमारतें बनीं, जो युग परिवर्तन एवं प्रलय के कारण नष्ट होती रहीं। साथ-साथ ज्ञान का अधिकांश भाग भी प्रलय के विकराल मँुह का छोटा-सा ग्रास बन कर नष्ट होता रहा, किन्तु जितना भी ज्ञान बचा हुआ है वह भी सम्पूर्ण मानव-जाति को सभी प्रकार के सुख देने में पूर्ण सक्षम है।
उत्तर वैदिककाल के पश्चात् अलग-अलग कार्य करने वालों की अलग-अलग जातियाँ बन गईं यथा-तेली, स्वर्णकार, चर्मकार, लोहार, शिल्पकार, कुम्भकार इत्यादि। शिल्पकार जाति को आजकल कुमावत, चेजारे सिलावट, मिस्त्री आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
सौभाग्य से मेरा जन्म कुमावत जाति में हुआ । मेरे पिता, दादा, परदादा.... वे सभी कई पीढ़ियों से भवन-निर्माण का कार्य करते आए हैं, इसलिए वास्तुशास्त्र के ज्ञान के कुछ चमकीले हीरे तो हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते रहे। आजकल कई अन्य जातियों के लोग भी इस व्यवसाय को अपनाते हुए निर्माण-कार्य में अपना योगदान दे रहे हैं, यह गौरव की बात है।
पिछले कुछ वषो से यह वास्तुशास्त्रीय ज्ञान पुस्तकालय की चार दीवारी से निकल कर आम जनता के साथ बैठने-उठने लगा है। कठिन सिद्धांतों के संस्कृत श्लोकों का सरल अर्थ मय चित्रों के दर्शाते हुए अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनसे जिज्ञासु पाठकों की रूचि में आशातीत अभिवृद्धि हुई है। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल कई पाठक ऐसे हैं जो वास्तुशास्त्र का केवल नाम ही नहीं जानते, बल्कि उनके प्रमुख सिद्धांत भी जानते हैं। यह आपके जीवन में सुख-शांति, उन्नति व विविध खुशियों के आगमन का पूर्व संकेत भी है।
मैं न तो महान् ज्योतिषाचार्य हँू न महान् वास्तुशास्त्री हँू। इस स्वनिर्मित `महान´ शब्द से तो मैं सदैव कौसों दूर रहना चाहता हँू। मैं इतना अवश्य जानता हँू कि संगीत संसार का जिंदा जादू था, है और रहेगा। सरगम के सांचों में ढला हुआ शब्द चरमोत्कर्ष पाकर शब्द-ब्रह्म बन जाता है। संगीत की सिद्ध स्वर-लहरियाँ गायक को ही नहीं, श्रोताओं को भी अमर करने की सामथ्र्य रखती हैं, यथा-श्रीकृष्ण व गोपियाँ।
एक तरफ प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर,... आदि कवियों की प्रमुख रचनाओं, कविताओं व पुस्तकों के शीर्षक भी अभी तक आम-जनता तक नहीं पहँुच पाए हैं। दूसरी तरफ सैकड़ों वर्ष बीत जाने के पश्चात् भी कबीर, मीरा, रैदास, नानक, आदि भक्त कवियों द्वारा रचित भक्ति-काव्य के भजनों को भजन-मण्डलियाँ सारी-सारी रात गाते हुए भी थकती नहीं हैं। यह जन साधारण की बोल-चाल की उपभाषाओं का ही प्रभाव है। बोल-चाल की उपभाषाओं के काव्य को श्रोता व पाठक शीघ्र ही आत्मसात् कर लेते हैं। वास्तुशास्त्र के जटिल सिद्धांतों को सरल भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए मैंने छन्दों की कुण्डली विधा का चयन किया। हिन्दी के छन्दशास्त्र में इसे `कुण्डलिया´ कहा जाता है। यह मात्रिक विषम छन्द है। यह छ: पंक्तियों का संयुक्त छन्द होता है। प्रथम दो दल दोहे के होते हैं और अन्तिम चार रोले के होते हैं। `कुण्डलिया´ में `दोहा´ इस छन्द का पूर्वार्द्ध कहलाता है और `रोला´ इसका उत्तराद्ध्रZ कहलाता है। प्रत्येक पंक्ति में (13,11) की 24 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार कुल 144 मात्राएँ होती हैं। इसमें दोहे की 11 मात्राओं का अंतिम चतुर्थ चरण ही प्रथम रोले की 11 मात्राओं के प्रथम चरण के रूप में दोहराया जाता है। यह छन्द जिस शब्द से प्रारम्भ होता है उसी शब्द से पूर्ण होता है, अर्थात् वही आखिरी शब्द होता है। कई बार 13 मात्राओं के प्रथम चरण के प्रथम शब्द के अलावा अन्य शब्द भी कुण्डली का अंतिम शब्द होता है। मैरे द्वारा प्रस्तुत समाहित छन्दों में उक्त नियमों का यथा-शक्ति पालन करने का प्रयास किया गया है।
`हितेन सहितम् साहित्यम्´ के भाव से प्रभावित होकर मानव-जीवन की आवास व्यवस्थाओं के अधिकाधिक पहलुओं यथा-देव-वन्दना,वंश-वृद्वि,धन-वृद्धि, अध्यात्म,कर्जा,कोर्ट-कचहरी के विवाद,व्यवसायिक उन्नति,
भूमि के प्रकार, भूखण्ड के विभिन्न आकार जैसे विविध महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को मैंने अपने कुण्डली-काव्य के विषय बनाये हैं। रचनाओं के साथ-साथ कठिन शब्दार्थ देते हुए उनका सरल हिन्दी भाषा में भावार्थ भी दिया है। कुण्डली-काव्य द्वारा प्रदर्शित वास्तु-सिद्धांत को सुस्पष्ट करने के लिए उसके अनुरूप चित्रंाकन भी किया है , ताकि सामान्य पाठक उस मन्तव्य को भली-भाँति समझ कर अधि- काधिक लाभािन्वत हो सकें। रचनाये गरिमायुक्त शिष्ट शैक्षिक हास्यमय हैं। कुण्डलियोंं में विविध हास्य-कल्पनाओं का सहारा लेते हुए वास्तु-सिद्धांतों को हर दृष्टि से प्रभावी व रोचक बनाने का भरसक प्रयास किया है।
वास्तु के समस्त प्रभाव अदृश्य होने के कारण गृह-स्वामी उन्हें उचित महत्व नहींं दे पाते हैं। वे अपने भाग्य को ही बदनसीब कहते हुए पल-पल कोसते रहते हैं या अपने ही परिवार के किसी मित्र, पुत्र-पुत्री, या पुत्र-वधू आदि को शुभ-अशुभ करार देते हुए, उन पर दोषारोपण करते रहते हैं। वैसे अदृश्य शक्तियाँ अपना प्रभाव इन्हीं माध्यमों से दर्शाती हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति पूर्णत: वैज्ञानिक है। वास्तु के सारे सिद्धांत पाँच महाशक्तियों से (आकाश, वायु, जल, अग्नि व पृथ्वी) हमारा ताल-मेल बिठाते हुए इनसे हमारी कई पीढ़ियों तक के मधुर संबंध स्थापित कराते हैं।
आधुनिक विज्ञान हमारे वैदिक व यौगिक ज्ञान के समक्ष बहुत बौना है। आज के आधिकांश लोग मात्र
उन्हीं बातों को प्रामाणिक मानते हैं जिन्हें पाश्चात्य वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में सत्य सिद्ध कर पुस्तकोंं में छाप देते हैं। वास्तुशास्त्र के सिद्धांत प्रकृति रूपी महाशक्ति से आपका हाथ मिलवाते हुए आपको ढेर सारी खुशियाँ, धन-वृद्धि, वंश-वृद्धि, मानसिक शांति एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि दिलवाते हुए अंत में मोक्ष-प्राप्ति तक एक ईमानदार वकील की भूमिका निभाते हुए चारों पुरुषार्थों ंकी प्राप्ति करवा देते हैं। मैं विश्वास करता हँू कि यह पुस्तक वास्तुज्ञान देकर यथोचित मार्ग दर्शाती हुई आपकी एक प्रिय पुस्तक बनेगी।
इस पुस्तक के लिखने में मैंं सबसे पहले आभारी हँू पूज्य पिताजी स्व. श्री रतनलाल चंगेरिया का जिन्होंने जीवन भर एक राजकीय अध्यापक रह कर चित्तौड़गढ़ में नक्शा-नवीस का काम करते हुए हजारों इमारतों के नक्शे बना-बना कर शहर के तामीराती कामों में काफी मदद की। छ: भाई-बहनों के बीच मुझे भी एम.ए. तक पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बनाया कि मैं अपने इस खानदानी हुनर के बारे में कुछ लिख सकूँ। शिल्पकार एवं नक्शा-नवीस स्व.श्रीनारायणजी चंगेरिया के इकलौते पुत्र मेरे पितामह श्रीघीसा लाल चंगेरिया, जो 25 वर्ष पूर्व सन् 1975 में सिविल मिस्त्री के पद से सेवा-निवृत्त हुए। आप मेरे बचपन से ही मेरी कविताओं को आशीर्वाद देते रहे हैं। मैं आापका भी हृदय से आभारी हूँ। मेरे सबसे छोटे भाई नक्शा-नवीस श्री लक्ष्मीलाल चंगेरिया का जिन्होंने इन कुण्डलियों को `मेवाड़ी´ बोली के बजाय हिन्दी भाषा में रचने की प्रेरणा दी ताकि हजारों नहीं लाखों लोग उसे समझ सकें।
हीरे-मोती के व्यापारी मेरे मित्र श्री राकेश गदिया का भी मैं आभारी हँू कि जिन्होंने इस पुस्तक केप्रकाशन के पूर्व भी अनेकों बार अपनी शुभकामनाएँ देते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन किया साथ ही आभारी हूँ वैद्यराज श्री महावीर सक्सेना का जो मुझे इस पुस्तक की भावी सफलता दर्शाते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहे।
वास्तु की पुस्तकें लिखनेवाले उन तमाम लेखकों को मैं एक साथ नमन करता हँू, जिनकी पुस्तकोंं से मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि हुई है। अंत में फिर आभार व्यक्त करता हँू, मेरी पत्नी कंचन देवी चंगेरिया का, पुत्री कु. यशोदा व कु. नीलम का, पुत्र चन्द्रशेखर व चेतन का जिन्होंने मेरे हिस्से के कई सारे कार्य स्वयं करते हुए मुझे लेखन-कार्य के लिए स्वतंत्र रखा।
प्रिय पाठको ! कमियाँ, भूलें और त्रुटियाँ ही इंसानों को इंसान प्रमाणित करती हैं। श्रेष्ठतम् इन्सान वही है, जो उन तमाम भूलों को दुबारा नहीं भूले। इस पुस्तक में नये सुझाव, नवीनीकरण, शुद्धिकरण, परिवर्तन, अभिवर्द्धन जो भी आप आवश्यक समझें, उन्हें अवश्य मुझ तक पहुँचावें ताकि अगले संस्करण में आपके सुन्दर विचारों का लाभ उठा सकें।
आपकी शिकायत, सुझाव, व पसन्द के पत्रों की दीघZकालीन प्रतीक्षा में आपका स्नेही यह अमृत `वाणी´ अपलक प्रतीक्षारत है। इसका द्वितीय भाग सृजन के दौर से गुजर रहा है, वह भी शीघ्र ही आपके कर-कमलों में होगा।
मैं चाहता हँू कि आप सभी के भवन सभी प्रकार से सुख देने वाले हों, धन-धान्य के भण्डार भरे रहें और ऊँचाईयाँ सदैव बढ़ती रहें। एक कुण्डली के द्वारा उक्त सुविचारों को यँू प्रकट करना चाहूँगा।
मंजिल यँू बढ़ती रहे, बने वह विजय-स्तम्भ ।
अजातशत्रु सभी यहाँ, बने प्रकाश-स्तम्भ ।।
बने प्रकाश-स्तम्भ, जगत सौ-सौ सुख पावें ।
समझ कर वास्तु-ज्ञान, स्वर्ग-सा सदन बनावें ।।
कह `वाणी´ कविराज, होय सभी पल-पल सफल ।
कष्ट कभी ना होय, हो कामयाब हर मंजिल ।।
कवि अमृत `वाणी´

तिजोरी (Vault)

उत्तर दिषा आवास की ,समझो धन का वास ।
चयन कमरे का करना , यही चयन है खास ।।
यही चयन है खास , रखें वहीं पर तिजोरी ।
कोण जहां नैऋत्य , रखें कुछ वहां तिजोरी ।।
कह ’वाणी’ कविराज , वहीं स्फटिक का श्रीयंत्र ।
पल-पल में धनवान , ऐसा यह अचूक मंत्र ।।

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वास्तु उपहार

वास्ता गहरा वास्तु से , देता हूंॅ उपहार ।
जहाॅं-जहाॅं हीरे मिले , वहीं बनाए हार ।।
वहीं बनाए हार , कलम ने खूब तराषा ।
रहें हृदय के माय , मुझे ऐसी ही आषा ।।
कह ‘वाणी’ कविराज , रास्ता दिखाए रास्ता ।
दिन-दिन करो विकास , जिनका गहरा वास्ता ।।

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नफा मिले तत्काल

यदि घाटे में चल रही , फेक्ट्र्ी और दुकान ।
आठ पहर कहते यही , पार लगा भगवान ।।
पार लगा भगवान , बिठा गणपति महाराज ।
अन्दर और बाहर , मुख्य द्वार पर तुम आज ।।
कह‘वाणी’कविराज , आमद ऐसी बढ़ रही ।
नफा मिले तत्काल , यदि घाटे में चल रही ।।

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प्लाट का चक्कर (Around the plot)



प्लाट का चक्कर
चक्कर में चक्कर चले, चलता चक्कर खाय।
चक्कर चाले प्लाट का, सारा ही धन जाय।।
सारा ही धन जाय, तब खाय दिमाक चक्कर।
संभल-संभल कर जाय, तो लगे प्यारे टक्कर।।
कह `वाणी´ कविराज, काट डॉक्टर के चक्कर।
मिटा सारे चक्कर, छोड़ो प्लाट का चक्कर।।
शब्दार्थ : चाले ¾ चलना
भावार्थ : चक्राकार भूखण्ड में बड़े-बड़े चक्कर पड़ते रहते हैं। भूमि-विवादों में धन का अपव्यय होता रहता है। धन-हीन होते ही बिना ही बात दिमाक चक्कर खाने लगता है। दुर्भाग्य के कई चक्कर एक साथ चालू होते हैं, यथा-संभल-संभल कर चलने पर भी वाहन दुघZटना हो जाना।
`वाणी´ कविराज कहते हैं कि दुघZटना होने के बाद डॉक्टरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इन सभी चक्करों से मुक्ति पाने के लिए एक ही उपाय यह है कि तुम इस चक्राकार प्लाट खरीदने का चक्कर ही छोड़ दो।

त्याग दो ऐसा त्रिभूज (Live it up so Tribhuj)


त्याग दो ऐसा त्रिभूज
त्रिभुज जहाँ कहीं बने , समझ उसे त्रिशूल ।
दिन-दिन भारी कष्ट दे , कभी न कर तू भूल ।।
कभी न कर तू भूल, हो मुकदमा बिना बात।
धन का होवे धूल, धूल उड़ेगी दिन-रात।।
कह ‘वाणी’ कविराज, जेल जाय अग्रज-अनुज।
बिताय चैदह साल, त्याग दे ऐसा त्रिभुज।।
शब्दार्थ: त्रिशूल = तीन प्रकार के कष्ट एक साथ होना,
अग्रज-अनुज = बडे़ व छोटे भाई बन्धु,
चैदह साल = हत्या के अभियुक्त की सजा की अवधि
भावार्थ: त्रिभुजाकार भूखण्ड को त्रिशूल समझ शीघ्र ही त्याग देना चाहिए। उस भूमि पर निवास करने से प्रतिदिन कष्ट और बाधाएँ बढ़ती जाती हंै, ऐसा प्लाट लेने की कभी भी भूल न करें। वहाँ छोटी-छोटी सी बात पर मुकदमें चलते हैं। धन की धूल हो जाती है। वही धूली दिन-रात उड़-उड़ कर नेत्रों व हृदय के प्रेम-पुष्पों पर जम जाती है।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि व्यवहार में स्वतः ऐसी कटुता आ जाती कि परस्पर हत्याएँ तक हो जाती हैं। कभी-कभी छोटे बड़ों को जेल में चैदह-चैदह साल तक बिताने पड़ सकते हैं, इसलिए त्रिभुजाकार जमीन को त्रिशूल समझ देखते ही त्याग देवें।

पीली हरी जमीं (yellow-green Land)

पीली हरी जमीं
पीली हरी जमीं जहाँ , जम-जम बरसे नोट।
खट्टा इसका स्वाद है , करो सेठजी नोट।।
करो सेठजी नोट, यह देय शहद सी गंध।
वैश्या भूमि कहाय , चलाय धन्धे जो बंद।।
कह `वाणी´ कविराज, धन देवे धरा पीली।
स्वर्णाभूषण पहन, पत्नियाँ पीली-पीली।।
शब्दार्थ : जम-जम बरसे = लम्बी अवधि तक बरसना, स्वर्णाभूषण = सोने के गहने
भावार्थ : पीली और हरे रंग की भूमि पर जम-जम कर नोटों की बरसातें होती है । शहद जैसी गंध वाली इस भूमि का स्वाद खट्टा होता है । हे
सेठजी ! ऐसी प्रमुख बातें आप नोट कर लेवें। इसे महाजनी और वैश्या भूमि भी कहते हैं। यह वषोंZ से बन्द धन्धे शीघ्र चला कर स्वामी को धनवान बना देती है।
`वाणी´ कविराज कहते हैं कि पीत वणी भूखण्ड इतना धन दायक होता है कि उस भवन की बेटियाँ कुल-वधुएँ स्वर्णाभूषण पहन-पहन कर ऐसी पीली-पीली दिखती हैं कि उन्हें पहचानने में ही परेशानी आ जाती है। उन्हें देख, पता ही नहीं चल पाता कि ये हमारे परिवार की बहु-बेटियाँ हैं या हेम-कन्याएँ हैं।

त्यागो शूद्रा भूमि (Lose Ashudro land)

शूद्रा भूमि उसे कहें , काला होवे रंग |
कड़वा-कड़वा स्वाद दे , देवे मदिरा-गंध ।।

देवे मदिरा-गंध, ठीक-ठाक रहते योग |
लोन लेलो भैया, लगालो एक उद्योग ||

कह `वाणी´ कविराज , फिर भी बात नहीं जमी ।
बनाय वहाँ श्मशान, त्यागो तुम शूद्रा भूमि ||




शब्दार्थ : मदिरा गंध = मदिरा जैसी बदबू आना, त्यागो = छोड़ दो, लोन = उद्योग हेतु ऋण लेना
भावार्थ : श्याम वणीZ कृषि योग्य भूमि को शूद्रा भूमि कहते हैं। जिसका स्वाद कड़वा एवं गंध मदिरा जैसी होती है। आवास हेतु यह भूमि त्याज्य मानी गई है। यहाँ उन्नति के अतिसाधारण योग बनते हैं। यदि आपको फिर भी वहाँ रहना पड़ रहा हो तो थोड़ा-सा कर्जा लेकर छोटा-सा उद्योग लगा लेवें जिससे गुजर-बसर हो सके ।
`वाणी´ कविराज कहते हैं कि यदि उद्योग नहीं चले तो उस भूमि को कृषि-कार्य हेतु प्रयोग में लेवें। कृषि में भी आपसे पसीना नहीं बहाया जा सके तो फिर अंत में उसे श्मसान के लिए त्याग दें।

पति बजाएगा तबला (Husband play the tabla)


पति बजाएगा तबला

तबला जैसी भू जहाँ, है पूरी बेकार।
तुम सौदा कैंसल करो, करके तुरंत तार।।
करके तुरंत तार, जी भर बजाओ ताली।
नहीं तो वही प्लाट, कर देय धन से खाली।।
कह 'वाणी' कविराज , सुनले बात तू अबला।
धंधा पानी छूट, पति बजाएगा तबला।।


शब्दार्थ: बेकार = व्यर्थ, कैंसल = निरस्त , अबला = औरत, तबला = एक प्रकार का वाद्य यंत्र

भावार्थ: तबला जैसा भूखण्ड आवासीय दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं होता है। ऐसा प्लाट मिल जाने पर तुम तुरन्त तार करके अपनी ओर से सौदा कैंसल करने की सूचना भेजते हुए खूब तालियाँ पीटो। आपने यदि सही समय पर यह ठोस कदम नहीं उठाया तो वही तबलाकार भूमि आपको धनहीन कर देगी ।

'वाणी' कविराज कहते हंै कि हे अबला ! सुनो तुम हमारी बातों पर विश्वास करलो, वर्ना वह दिन दूर नहीं जिस दिन धन्धा पानी सब छूट जावेगा और तुम्हें गली-गली नाचने पर और पति महोदय को तबला बजाने पर मजबूर होना पड़ेगा।






विश्वकर्मा जयंती पर आप सभी को बहुत बहुत बधाई


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विश्वकर्मा

देव विश्वकर्मा सुनो, हें प्रथम आर्किटेक्ट ।
निर्माण-कार्य की रची , सुन्दर-सुन्दर टेक्ट ।।
सुन्दर - सुन्दर टेक्ट , रचि आप अमरावती ।
आत्मज प्रभासवसु , मामा गुरु बृहस्पति ।।
कह `वाणी´ कविराज, आपने रची द्वारिका ।
सब गांवन में जाय , देव फिर रचो द्वारिका ।।

शब्दार्थ : विश्वकर्मा = निर्माण कार्य के आदि देव (देवताओं के मुख्य अभियंता) , आिर्कटेक्ट = वास्तु-शास्त्री,टेक्ट = तरकीब, गूढ रहस्य, अमरावती = इन्द्रपुरी, आत्मज = पिता, बृहस्पति = देवताओं के गुरु

भावार्थ : वास्तुशास्त्र के आदि गुरु विश्वकर्मा एवं मय हुए हैं। मय दानव संस्कृति के तो विश्वकर्मा देव संस्कृति के प्रथम वास्तुशास्त्री थे। आपने लौकिक व दिव्य ज्ञान के द्वारा देवाधिपति इन्द्र के लिये सुन्दर अमरावती का निर्माण कर स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाई। पारिवारिक संबंधोंं में आप प्रभासवसु के पुत्र, देवगुरु बृहस्पति के भांजे एवं सृष्टि के प्रथम सम्राट राजा पृथु के समकालीन थे।
`वाणी´ कविराज कहते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण के लिए आपने द्वारिका की रचना कर इस मृत्युलोक को भी एक अनुपम अलौकिक उपहार दिया। अंत में कवि निवेदन करते हैं कि हे प्रभु विश्वकर्मा ! आप इस युग में भी गांव-गांव, शहर-शहर जाकर असंख्य द्वारिकाओं की रचना करते हुए कोटि-कोटि जन को विभिन्न प्रसन्नताएँ प्रदान करें।

अमृत 'वाणी'

लेखक परिचय (कवि अमृत 'वाणी')

लेखक





शिक्षा
अमृत 'वाणी'
अमृत लाल चंगेरिया (कुमावत)
वास्तु शास्त्री एंव नक्शा नवीस
एम . ए. , एम. एड .
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रूचि पठन , लेखन तथा भ्रमण

रचनाएँ
राजस्थानी व हिन्दी में पध-लेखन ,
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प्रकाशित पुस्तकें
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प्रकाशन
चेतन प्रकाशन
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पंच अंगुल (Punch Angul)

पंच अंगुल
बने हाथ ऐसा कभी, ऊपर स्वास्तिक होय।
पंच अंगुल तले रहे, कुछ ढोलक सा होय।।
कुछ ढोलक सा होय, दे हाथ कर्म-सन्देश।
पंच तत्व प्रतीक, यह रिद्धि-सिद्धि का देश।।
कह `वाणी´ कविराज, अपने मेहमान आय।
गौरी पीठी लेय, पीठ-पीठ हाथ बनाय।।

शब्दार्थ : गौरी = समधी की पत्नी, पीठी = चावल हल्दी का घोल जो पीठ पर लगाया जाता है , रिद्धि-सिद्धि = आध्यात्मिक तथा भौतिक सम्पन्नता देने वाली शिक्त्तयाँ

भावार्थ : चार अंगुलियाँ व अंगुष्ठ पंच तत्व के प्रतीक हैं, जिसे कई सदियों से हम अतिशुभ मानते आ रहे हैं। स्वास्तिक के नीचे पंचागुल होने से आकृति कुछ-कुछ ढोलक सी हो जाती है। पंचांगुल का चिन्ह जीवन को निष्काम कर्म-संदेश भी देता है। परमार्थ-भावना से किए गए सद्कर्मोंं द्वारा शीघ्र ही रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति कराने वाला हमारा यह चिन्ह सारे जग में निराला है।
`वाणी´ कविराज कहते हैं कि पंचागुल की लोकप्रियता बहुत पुरानी है। हमारे घरों पर जब सामाजिक कार्योंं में प्रिय मेहमान आते हैं तब प्रेम-निशानी के तौर पर पीठी अथवा रंग से भरे हाथ की उनकी पीठ पर जोरों से मारी जाती है। पंचागुल का यह निशान आपने वह फंक्शन अटेंड किया व जितने दिन वहाँ ठहरे यह उन दिनों की आपकी महिला अधिकारी द्वारा की गई अटेस्टेड ऑन ड्यूटी भी है।


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