Vastu Shashtra : Kul Dev - Family God (SK-9)


कुल-देव लगा चित्र दीवार पे, जो होवे कुल-देव । खेल करे बालक कहीं,सूरदास के देव ।। सूरदास के देव, देव अवधपति श्रीराम । मोती चुगते हंस, लेय शारदा का नाम ।। कह ‘वाणी’ कविराज,होगा भवसागरपार । वैतरनी तर जाय, ऐसी रंगो दीवार ।। शब्दार्थ: कुल-देव = पारिवारिक देवता, शारदा = सरस्वती, वैतरनी = स्वर्ग के मार्ग में आने वाली नदी
भावार्थ:

विद्वान गृह स्वामियों को अपने घर की दीवारों पर सर्वप्रथम कल-देव व कल-देवी के चित्र लगाने चाहिए। उसके पश्चात् माखन चोर, कहीं अवधपति श्रीराम का चित्र तो कहीं शारदा का नाम लेकर मोती चुगते हुए हंस । इस प्रकार अलौकिकता लिए हुए सुन्दर सर्व कल्याणकारी चित्र लगावें।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि स्वर्ग-गमन के दौरान वैतरनी नदी भी पूंछ पकड़ कर पार कर सकें इसके लिये पूजा घर में कामधेनु का चित्र अवश्य लगावें। ऐसे मोक्ष-प्रदायी चित्रों से भवन की सभी दीवारें रंग देवें।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया



Vastu Shashtra : Prabhu yeshu - Lord Christ (SK-8)



प्रभु यीशु ईसाई के सदन में,जो लगवावे क्रास । प्रभु यीशु मंगल करे, दूर करे सब त्रास ।। दूर करे सब त्रास, यवनघर चांद-सितारे। अल्ला-ताला पास, आय कर भाग्य संवारे।। कह ‘वाणी’ कविराज, भवन में एक ओंकार। सिक्ख सदैव प्रसन्न, रह सदन में सपरिवार।।
शब्दार्थ: यीशु = ईसाई धर्मानुसार ईश्वर, यवन = मुसलमान
भावार्थ:

ईसाई बन्धुओं को अपने सदन में क्राॅस का चिन्ह अवश्य लगवाना चाहिए, इससे प्रभु सब संकट दूर करते हुए आनन्द कर देते हैं। मुस्लिम भाईयों द्वारा अपने घरों पर चांद-सितारे बनवाने से भाग्य के सितारे बुलन्दियों को छूते हैं, और अल्ला-ताला आपके मुकाम पर आकर बिगड़ी नसीब संवारते हैं ।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि सिक्ख साथियों द्वारा सदन में एक ओंकार का निशान बनवाने से उस परिवार में सदैव प्रसन्नता बनी रहती है।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया




Vastu Shashtra : Swastik (SK-7)


स्वस्तिक होय स्वस्तिक जिस घर में, मंगल होवे द्वार । विष्णु संग लक्ष्मी चले, आय आपके द्वार । आय आपके द्वार, भक्त खड़े सब कर-जोड़। पधारो महाराज, आप लक्ष्मी यहीं छोड़ ।। कह ‘वाणी’ कविराज, नहीं कभी निर्धन रोय। लेवे सेठ उधार, जहां स्वस्ति वाचन होय ।।
शब्दार्थ: पधारो = आने-जानेवाले के लिए, सम्मान जनक शब्द, लक्ष्मी = धन की देवी
भावार्थ:
फ्रंट इलेवेशन में उच्च स्थान पर बड़ा-सा स्वस्तिक अति शुभ माना गया है। उसके अलौकिक आकर्षण से कभी लक्ष्मी को संग लिए विष्णु भी मार्निंग-वाक करते हुए आपके द्वार तक चले आवेंगे। द्वार पर खड़े प्रतीक्षारत भक्तगण निवेदन करेंगे कि हे प्रभु! हमारा विशेष निवेदन यह है कि आप अपनी प्राण-प्रिया लक्ष्मी को हमारे यहीं छोड़दें। भक्त वत्सल, वरदायी विष्णु के श्रीमुख से भक्तों के लिये नहीं शब्द तो आज तक कभी निकला ही नहीं।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि ऐसी घटनाओं के पश्चात् कोई निर्धन नहीं रोएगा। बड़े-बड़े सेठ उससे उधार लेंगे परंतु यह तब संभव होगा जब उस भवन में नियमित स्वस्तिवाचन भी होता रहे।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया



Vastu Shashtra : Panch Angul (SK-6 )


पंच अंगुल बने हाथ ऐसा कभी, ऊपर स्वस्तिक होय । पंच अंगुल तले रहे, कछु ढोलक सा होय ।। कछु ढोलक सा होय, दे हाथ कर्म-सन्देश । पंच तत्व का चिह्न, रिद्धि-सिद्धि का यह देश् ।। कह ‘वाणी’ कविराज, अपने मेहमान आय । गौरी पीठी लेय, पीठ-पीठ हाथ बनाय ।। शब्दार्थ: गौरी = समधी की पत्नी, पीठी = चावल हल्दी का घोल जो पीठ पर लगाया जाता है,रिद्धि-सिद्धि = आध्यात्मिक तथा भौतिक सम्पन्नता देने वाली शक्तियां
भावार्थ:

चार अंगुलियां व अंगुष्ठ पंच तत्व के प्रतीक हैं, जिसे कई सदियों से हम अतिशुभ मानते आ रहे हैं। स्वस्तिक के नीचे पंचांगुल होने से आकृति कुछ-कुछ ढोलक सीहो जाती है। पंचांगुल का चिह्न जीवन को निष्काम कर्म-संदेश भी देता है। परमार्थ-भावना से किए गए सद्कर्मों द्वारा शीघ्र ही रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति कराने वाला हमारा यह चिन्ह सारे जग में निराला है।

‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि पंचांगुल की लोकप्रियता बहुत पुरानी है। हमारे घरों पर जब सामाजिक कार्यों में प्रिय मेहमान आते हैं तब प्रेम-निशानी के तौर पर पीठी अथवा रंग से भरे हाथ की उनकी पीठ पर जोरों से मारी जाती है। पंचांगुल का यह निशान आपने वह फंक्शन अटैंड किया व जितने दिन वहां ठहरे यह उन दिनों की आपकी महिला अधिकारी द्वारा की गई अटेस्टेड ऑन ड्यूटी भी है। तो ऐसे ही कार्यों में सिद्धहस्त हैं।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया



Vastu Shashtra : Om Mahatam Mantra (SK-5)


ॐ महत्तम मंत्र ॐ महत्तम मंत्र है, लिखो घरों में ओम् । जप-जप कर इस मंत्र को, करें घरों में होम ।। करें घरों में होम, ले सर्वेश्वर का नाम । बिना हिलाए हाथ, सफल हो आपके काम ।। कह ‘वाणी’ कविराज, पत्थर दिल होवे मोम । अश्रु बन बहे मोम, अश्रु सुखाय महा ओम् ।।
शब्दार्थ: ओम = ्रह्म का संकेत, सृष्टि का रचयिता, प्रथम नाद, होम = हवन, अश्रु = आंसू

भावार्थ:
इस चराचर संसार में ओम् का बड़ा ही महत्त्व है। समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माण इसी स्वर-नाद से माना जाता है। यदि संभव हो तो घर के ऐसे उच्च स्थान पर ओम् लिखवाना चाहिए कि दूर से ही पढ़ा जा सके। समय-समय पर ओम् से आरंभ होने वाले मंत्रों का उच्चारण करते हुए घरों में हवन भी करवाते रहना चाहिए। ओम सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर ब्रह्म का ऐसा चमत्कारिक नाम है कि इससे बिना ही हाथ व जिह्वा हिलाए आपके समस्त कार्य पूर्ण हो सकते ह ैं।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि ओम् के प्रभाव से पत्थर दिल भी मोम बन जाता है। असहनीय कष्ट के क्षणों में वही ओम आंसुओं की गंगा-यमुना बन बहता है। बहते हुए अश्रुओं की अविरल धारा को पलभर में सुखाने की क्षमता भी ओम में ही विद्यमान है। भवन पर ओम् लिखवाना बहुत लाभदायक है ।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया





Vastu Shashtra : Mangal Kalash (SK-4)


मंगल-कलश जल का भर मंगल कलश, पल्लव आम लगाय । रख कर श्रीफल रजत का, पूजा-घर ले जाय । पूजा-घर ले जाय, सपत्नी करना पूजन । पावन पूजन होय, भोग लगाय कर भोजन ।। कह ‘वाणी’ कविराज, कलश देगा भाग्य बदल । रख ईश्वर को याद, रहो सदा कुशल-मंगल ।।
शब्दार्थ: आम-पल्लव =आम के पत्ते, श्रीफल ़़= नारियल, रजत = चांदी





भावार्थ:
जल-कलश में आम-पल्लव लगा, रजत-श्रीफल रख पूजा-घर में रखते हुए सपत्नी (यदि हो तो) पूजन करने से घर में सदैव प्रसन्नता बनी रहती है। प्रभु के भोग लगाकर भोजन करने से प्रतिदिन समय पर स्वादिष्ट पकवान मिलते हैं ।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि नियमित जल-कलश की पूजा करने से आपका भाग्य ही बदल जाएगा । ईश्वर को सदैव याद रखेंगे तो आपही नहीं आपका पूरा परिवार हर दृष्टि से सकुशल रहेगा ।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया



Vastu Shashtra : Shri Ganesh (SK-3)


श्रीगणेश श्री गणेश निर्माण का, अच्छा मुहरत देख । धन मांगे पण्डित सभी, देखे मूषक रेख ।। देखे मूषक रेख, न मांगे एकहूं पैसा । बैंच रेख तत्काल, भवन हो महलों जैसा ।। कह ‘वाणी’ कविराज, होय नहीं बाँका केश । जो जग बाँका होय, निपटे प्रभू श्रीगणेश ।।
शब्दार्थ: श्रीगणेश = कार्य का शुभारम्भ, मूषक = गणपति का वाहन (चूहा),जग बाँका होय = सब ओर शत्रु होना

भावार्थ:
निर्माण-कार्य के शुभारंभ हेतु श्रेष्ठतम् मुहूर्त निकलवाना चाहिए। कभी-कभी पंडित मुंह देखकर मुंह मांगा पैसा लेकर भी ऐसा नींव का मुहूर्त निकाल देते हैं कि नींव खुद ही नहीं पाती। हे श्रद्धालुओं! तुम तो गणेशजी के वाहन मूषक-राज को ही अपना हाथ दिखादो। वह एक पैसा भी नहीं मांगता है। यदि हाथ में भवन-रेखा ही नहीं होगी तो वह तत्काल प्रभाव से भवन-रेखा खींच भी देगा। फीस के नाम पर कुछ लड्डु थाली में सजा कर ले जाओ। लड्डु भी वह अपने स्वामी लम्बोदर महाराज के लिये ही मंगवाता है, स्वयं तो उनकी झूठन से ही संतुष्ट हो जाताहै ।

‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि फिर निर्माण-कार्य में कोई बाधा नहीं आएगी। यदि पूरा संसार भी विरोध करेगा तो भी आपका बाल बाँका नहीं हो सकेगा। विघ्न विनाशक प्रभु श्रीगणेश एक-एक से निपटते रहेंगे। वे तो ऐसे ही कार्यों में सिद्धहस्त हैं।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया



Vastu Shashtra : Vishwakarma (SK-2)




विश्वकर्मा देव विश्वकर्मा सुनो, हे प्रथम आर्किटेक्ट । निर्माण कार्य की रची, सुन्दर-सुन्दर टेक्ट ।। सुन्दर-सुन्दर टेक्ट, रची आप अमरावती । आत्मज प्रभासवसु, मामाजी गुरु बृहस्पति ।। कह ‘वाणी’ कविराज, आपने रची द्वारिका । सब गांवन में जाय, देव फिर रचो द्वारिका ।।
शंब्दार्थ: विश्वकर्मा = निर्माण कार्य के आदिदेव (देवताओं के मुख्य अभियंता), आर्किटेक्ट = वास्तु-शास्त्री, टेक्ट = तरकीब, गूढ़ रहस्य, अमरावती = इन्द्रपुरी, आत्मज = पिता, बृहस्पति = देवताओं के गुरू
भावार्थ:
वास्तुशास्त्र के आदिगुरू विश्वकर्मा एवं मय हुए हैं। मय दानव संस्कृति के तो विश्वकर्मा देव संस्कृति के प्रथम वास्तुशास्त्री थे। आपने लौकिक व दिव्य ज्ञान के द्वारा देवाधिपति इन्द्र के लिए सुन्दर अमरावती का निर्माण कर स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाई। पारिवारिक संबंधों में आप प्रभासवसु के पुत्र, देवगुरू बृहस्पति के भांजे एवं सृष्टि के प्रथम सम्राट राजा पृथु के समकालीन थे।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण के लिए आपने द्वारिका की रचना कर इस मृत्युलोक को भी एक अनुपम अलौकिक उपहार दिया। अंत में कवि निवेदन करते हैं कि हे प्रभु विश्वकर्मा ! कृपया आप इस युग में भी गांव-गांव, शहर-शहर जाकर असंख्य द्वारिकाओं की रचना करो।






Vastu Shashtra : Budhi Mujhe Do Sharda (SK-1)



बुद्धि मुझे दो शारदा बुद्धि मुझे दो शारदा, सदन शीघ्र बन जाय । कर पूरण स्वर-साधना, देऊ तुझे बिठाय ।। देऊ तुझे बिठाय, विराजो मेरे घर में । देओं गीत लिखाय, प्रकाश जगे अंतर में।। कह ‘वाणी’ कविराज, चित्त में शु़द्धि मुझे दो । रचूं कुंडली शतक, मात् सदबुद्धि मुझे दो ।।
शब्दार्थ: सद्बुद्धि = श्रेष्ठ बुद्धि, सदन = भवन, अंतस में प्रकाश = आत्मज्ञान

भावार्थ:

हे वीणा वादिनी मां शारदा ! ऐसी सद्बुद्धि प्रदान करो कि अपेक्षित आवासीय भवन शीघ्र बन जावे । मैं वहीं पर स्वर-साधना पूर्ण कर तुम्हें भी ईशान कोण में छोटा-सा मंदिर बना प्र्रतिष्ठित करूँ । मेरे घर में निवास कर ऐसे अमर गीतों की रचना करवाओ, जिससे जन-जन का अन्तर्मन आलोकित हो जाए ।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि हे मां मेरे चित्त को शुद्ध व पवित्र करो। मैं शिल्प कला पर सौ कुण्डलियों की रचना कर सकू, ऐसी सद्बुद्धि मुझे प्रदान करो।





शिल्प कला पर सो कुंडलिया "लेखकीय" (So the craft arts Kundelia)

शब्द द्वारा विश्व के सभी देवी-देवताओं को नमन एवं धरतीमाता को साष्टांग दण्डवत् करते हुए वास्तुशास्त्र विषय की इस पुस्तक के बारे में कुछ इस प्रकार निवेदन करना चाहँूगा कि वास्तुशास्त्र सैकड़ों नहीं हजारों वषो पुराना होकर हमारे वैदिक ज्ञान-भण्डार का अतिमहत्त्वपूर्ण भाग रहा है। देव-दानव नामक दो विपरीत संस्कृतियाँ सृष्टि के आदि काल से ही साथ-साथ चलती आ रही हैं। हर युग में मानव-जीवन के इस तराजू में पहले पाप का पलड़ा भारी हुआ, फिर देव अवतार का अतिरिक्त बाट लगने से पुण्य का पलड़ा भारी हुआ। इस प्रकार तराजू के पलड़ों का यह अप-डाउन चलता ही रहा और चलता रहेगा।

धार्मिक साहित्य में अथर्ववेद,स्कन्दपुराण,गरुड़पुराण,वायुपुराण, अग्निपुराण, मत्स्यपुराण, नारदपुराण में वास्तु-सिद्धान्तों का भरपूर वर्णन मिलता है। बौद्ध व जैन धर्म की पुस्तकों के साथ-साथ रामायण,महाभारत,कौटिल्य का अर्थशास्त्र,पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे प्राचीन ग्रंथों में जगह-जगह पर वास्तु सिद्धांतों के दीपक प्रकाश-स्तम्भ की भाँति हर मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं।

इनके अतिरिक्त भी वास्तु के प्रमुख ग्रंथों में विश्वकर्मा प्रकाश, शिल्प संग्रह, मय मत, राजवल्लभ, मानसार, वास्तुरत्नावली, शिल्प रत्न, चित्र लक्षण, रूप मण्डन, समरांगण, मुहूर्त मार्तंण्ड, हलायुध कोष, वृहद् वास्तुमाला, नारद संहिता, भुवन प्रदीप आदि ग्रंथों में वास्तु के अनुपम सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन मिलता है।

आदि काल से ही विश्व का प्रत्येक प्राणी अपने लिए एक आरामदायक आवास का आकांक्षी रहा है। सही विधि से पर्याप्त परिश्रम करने वालों को इस कार्य में सफल होते देखा गया है। चिड़िया, कबूतर, कौए आदि वृक्षों पर घोंसला बनाते हैं तो तोते वृक्षों को खोद-खोद कर अपनी कोटर बना लेते हैं। भँवरा कमल के पत्तों में ही विश्राम करता है, तो चूहे अपना बिल व संाप अपनी बांबी बना-बना कर रहते आए हैं। जंगल का राजा शेर पर्वतों में अपनी गुफाएँ ढूँढ़ ही लेता है। हमारे पूर्वज, श्रेष्ठ वानरों ने जब पेड़ की डालियों पर बैठे-बैठे समस्त प्राणियों को अपने-अपने आवास में ज्यादा सुरक्षित देखा तब निश्चित ही कुछ मेहनती बंदरों ने पर्णकुटी, झोपड़ियों आदि का निर्माण- कार्य प्रारंभ किया होगा। भवन-निर्माण, कृषि, आखेट आदि कार्य करते हुए वे
धीरे-धीरे मनुष्य बन गए, और शेष आलसी बंदर आज भी उसी रूप में रह गए।

निर्माण-कार्य की प्रबल इच्छा शक्ति के साथ ही वास्तुशास्त्र का जन्म हुआ। ऋषि-मुनियों ने तप-बल, योग-बल व अनुभव से सहस्रों वास्तु- सिद्धांत मानव जाति को दिए। यह ज्ञान अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में

रहा है। संसार के प्रथम राजा पृथु की समकालीन घटना है कि राजा पृथु पृथ्वी को समतल करना चाह रहे थे। भयभीत पृथ्वी ने गाय का रूप धारण कर स्वर्ग में जाकर ब्रह्माजी से निवेदन किया कि मेरा कष्ट दूर करें। उसी समय राजा पृथु भी वहाँ पहुँच कर कहने लगे मैं राजा हँू , स्थापत्य कार्य कैसे करूँ र्षोर्षो समस्या का हल निकालते हुए ब्रह्माजी ने विश्वकर्मा को बुलवाया और संसार के निर्माण का कार्य उन्हें सौंपा। विश्वकर्मा देेवपुरियाँ तथा अमरावती के निर्माण कार्यों में व्यस्त थे, उन्होंने मृत्युलोक के लिए भी कई सारे वास्तु-सिद्धांत बनाए। मय राक्षसों के एवं विश्वकर्मा देवताओं के प्रथम वास्तुविद् थे, जो भूवासियों के लिए भी प्रथम वास्तुविद् हुए। विश्वकर्मा प्रभासवसु के पुत्र एवं देवगुरु बृहस्पति के भांजे थे।

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उक्त वास्तुकारों द्वारा अनेक अद्भुत ईमारतें बनीं, जो युग परिवर्तन एवं प्रलय के कारण नष्ट होती रहीं। साथ-साथ ज्ञान का अधिकांश भाग भी प्रलय के विकराल मँुह का छोटा-सा ग्रास बन कर नष्ट होता रहा, किन्तु जितना भी ज्ञान बचा हुआ है वह भी सम्पूर्ण मानव-जाति को सभी प्रकार के सुख देने में पूर्ण सक्षम है।

उत्तर वैदिककाल के पश्चात् अलग-अलग कार्य करने वालों की अलग-अलग जातियाँ बन गईं यथा-तेली, स्वर्णकार, चर्मकार, लोहार, शिल्पकार, कुम्भकार इत्यादि। शिल्पकार जाति को आजकल कुमावत, चेजारे सिलावट, मिस्त्री आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

सौभाग्य से मेरा जन्म कुमावत जाति में हुआ । मेरे पिता, दादा, परदादा.... वे सभी कई पीढ़ियों से भवन-निर्माण का कार्य करते आए हैं, इसलिए वास्तुशास्त्र के ज्ञान के कुछ चमकीले हीरे तो हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते रहे। आजकल कई अन्य जातियों के लोग भी इस व्यवसाय को अपनाते हुए निर्माण-कार्य में अपना योगदान दे रहे हैं, यह गौरव की बात है।

पिछले कुछ वषो से यह वास्तुशास्त्रीय ज्ञान पुस्तकालय की चार दीवारी से निकल कर आम जनता के साथ बैठने-उठने लगा है। कठिन सिद्धांतों के संस्कृत श्लोकों का सरल अर्थ मय चित्रों के दर्शाते हुए अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनसे जिज्ञासु पाठकों की रूचि में आशातीत अभिवृद्धि हुई है। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल कई पाठक ऐसे हैं जो वास्तुशास्त्र का केवल नाम ही नहीं जानते, बल्कि उनके प्रमुख सिद्धांत भी जानते हैं। यह आपके जीवन में सुख-शांति, उन्नति व विविध खुशियों के आगमन का पूर्व संकेत भी है।

मैं न तो महान् ज्योतिषाचार्य हँू न महान् वास्तुशास्त्री हँू। इस स्वनिर्मित `महान´ शब्द से तो मैं सदैव कौसों दूर रहना चाहता हँू। मैं इतना अवश्य जानता हँू कि संगीत संसार का जिंदा जादू था, है और रहेगा। सरगम के सांचों में ढला हुआ शब्द चरमोत्कर्ष पाकर शब्द-ब्रह्म बन जाता है। संगीत की सिद्ध स्वर-लहरियाँ गायक को ही नहीं, श्रोताओं को भी अमर करने की सामथ्र्य रखती हैं, यथा-श्रीकृष्ण व गोपियाँ।

एक तरफ प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर,... आदि कवियों की प्रमुख रचनाओं, कविताओं व पुस्तकों के शीर्षक भी अभी तक आम-जनता तक नहीं पहँुच पाए हैं। दूसरी तरफ सैकड़ों वर्ष बीत जाने के पश्चात् भी कबीर, मीरा, रैदास, नानक, आदि भक्त कवियों द्वारा रचित भक्ति-काव्य के भजनों को भजन-मण्डलियाँ सारी-सारी रात गाते हुए भी थकती नहीं हैं। यह जन साधारण की बोल-चाल की उपभाषाओं का ही प्रभाव है। बोल-चाल की उपभाषाओं के काव्य को श्रोता व पाठक शीघ्र ही आत्मसात् कर लेते हैं। वास्तुशास्त्र के जटिल सिद्धांतों को सरल भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए मैंने छन्दों की कुण्डली विधा का चयन किया। हिन्दी के छन्दशास्त्र में इसे `कुण्डलिया´ कहा जाता है। यह मात्रिक विषम छन्द है। यह छ: पंक्तियों का संयुक्त छन्द होता है। प्रथम दो दल दोहे के होते हैं और अन्तिम चार रोले के होते हैं। `कुण्डलिया´ में `दोहा´ इस छन्द का पूर्वार्द्ध कहलाता है और `रोला´ इसका उत्तराद्ध्रZ कहलाता है। प्रत्येक पंक्ति में (13,11) की 24 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार कुल 144 मात्राएँ होती हैं। इसमें दोहे की 11 मात्राओं का अंतिम चतुर्थ चरण ही प्रथम रोले की 11 मात्राओं के प्रथम चरण के रूप में दोहराया जाता है। यह छन्द जिस शब्द से प्रारम्भ होता है उसी शब्द से पूर्ण होता है, अर्थात् वही आखिरी शब्द होता है। कई बार 13 मात्राओं के प्रथम चरण के प्रथम शब्द के अलावा अन्य शब्द भी कुण्डली का अंतिम शब्द होता है। मैरे द्वारा प्रस्तुत समाहित छन्दों में उक्त नियमों का यथा-शक्ति पालन करने का प्रयास किया गया है।

`हितेन सहितम् साहित्यम्´ के भाव से प्रभावित होकर मानव-जीवन की आवास व्यवस्थाओं के अधिकाधिक पहलुओं यथा-देव-वन्दना,वंश-वृद्वि,धन-वृद्धि, अध्यात्म,कर्जा,कोर्ट-कचहरी के विवाद,व्यवसायिक उन्नति,

भूमि के प्रकार, भूखण्ड के विभिन्न आकार जैसे विविध महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को मैंने अपने कुण्डली-काव्य के विषय बनाये हैं। रचनाओं के साथ-साथ कठिन शब्दार्थ देते हुए उनका सरल हिन्दी भाषा में भावार्थ भी दिया है। कुण्डली-काव्य द्वारा प्रदर्शित वास्तु-सिद्धांत को सुस्पष्ट करने के लिए उसके अनुरूप चित्रंाकन भी किया है , ताकि सामान्य पाठक उस मन्तव्य को भली-भाँति समझ कर अधि- काधिक लाभािन्वत हो सकें। रचनाये गरिमायुक्त शिष्ट शैक्षिक हास्यमय हैं। कुण्डलियोंं में विविध हास्य-कल्पनाओं का सहारा लेते हुए वास्तु-सिद्धांतों को हर दृष्टि से प्रभावी व रोचक बनाने का भरसक प्रयास किया है।
वास्तु के समस्त प्रभाव अदृश्य होने के कारण गृह-स्वामी उन्हें उचित महत्व नहींं दे पाते हैं। वे अपने भाग्य को ही बदनसीब कहते हुए पल-पल कोसते रहते हैं या अपने ही परिवार के किसी मित्र, पुत्र-पुत्री, या पुत्र-वधू आदि को शुभ-अशुभ करार देते हुए, उन पर दोषारोपण करते रहते हैं। वैसे अदृश्य शक्तियाँ अपना प्रभाव इन्हीं माध्यमों से दर्शाती हैं।

हमारी भारतीय संस्कृति पूर्णत: वैज्ञानिक है। वास्तु के सारे सिद्धांत पाँच महाशक्तियों से (आकाश, वायु, जल, अग्नि व पृथ्वी) हमारा ताल-मेल बिठाते हुए इनसे हमारी कई पीढ़ियों तक के मधुर संबंध स्थापित कराते हैं।

आधुनिक विज्ञान हमारे वैदिक व यौगिक ज्ञान के समक्ष बहुत बौना है। आज के आधिकांश लोग मात्र

उन्हीं बातों को प्रामाणिक मानते हैं जिन्हें पाश्चात्य वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में सत्य सिद्ध कर पुस्तकोंं में छाप देते हैं। वास्तुशास्त्र के सिद्धांत प्रकृति रूपी महाशक्ति से आपका हाथ मिलवाते हुए आपको ढेर सारी खुशियाँ, धन-वृद्धि, वंश-वृद्धि, मानसिक शांति एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि दिलवाते हुए अंत में मोक्ष-प्राप्ति तक एक ईमानदार वकील की भूमिका निभाते हुए चारों पुरुषार्थों ंकी प्राप्ति करवा देते हैं। मैं विश्वास करता हँू कि यह पुस्तक वास्तुज्ञान देकर यथोचित मार्ग दर्शाती हुई आपकी एक प्रिय पुस्तक बनेगी।

इस पुस्तक के लिखने में मैंं सबसे पहले आभारी हँू पूज्य पिताजी स्व. श्री रतनलाल चंगेरिया का जिन्होंने जीवन भर एक राजकीय अध्यापक रह कर चित्तौड़गढ़ में नक्शा-नवीस का काम करते हुए हजारों इमारतों के नक्शे बना-बना कर शहर के तामीराती कामों में काफी मदद की। छ: भाई-बहनों के बीच मुझे भी एम.ए. तक पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बनाया कि मैं अपने इस खानदानी हुनर के बारे में कुछ लिख सकूँ। शिल्पकार एवं नक्शा-नवीस स्व.श्रीनारायणजी चंगेरिया के इकलौते पुत्र मेरे पितामह श्रीघीसा लाल चंगेरिया, जो 25 वर्ष पूर्व सन् 1975 में सिविल मिस्त्री के पद से सेवा-निवृत्त हुए। आप मेरे बचपन से ही मेरी कविताओं को आशीर्वाद देते रहे हैं। मैं आापका भी हृदय से आभारी हूँ। मेरे सबसे छोटे भाई नक्शा-नवीस श्री लक्ष्मीलाल चंगेरिया का जिन्होंने इन कुण्डलियों को `मेवाड़ी´ बोली के बजाय हिन्दी भाषा में रचने की प्रेरणा दी ताकि हजारों नहीं लाखों लोग उसे समझ सकें।

हीरे-मोती के व्यापारी मेरे मित्र श्री राकेश गदिया का भी मैं आभारी हँू कि जिन्होंने इस पुस्तक केप्रकाशन के पूर्व भी अनेकों बार अपनी शुभकामनाएँ देते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन किया साथ ही आभारी हूँ वैद्यराज श्री महावीर सक्सेना का जो मुझे इस पुस्तक की भावी सफलता दर्शाते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहे।
वास्तु की पुस्तकें लिखनेवाले उन तमाम लेखकों को मैं एक साथ नमन करता हँू, जिनकी पुस्तकोंं से मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि हुई है। अंत में फिर आभार व्यक्त करता हँू, मेरी पत्नी कंचन देवी चंगेरिया का, पुत्री कु. यशोदा व कु. नीलम का, पुत्र चन्द्रशेखर व चेतन का जिन्होंने मेरे हिस्से के कई सारे कार्य स्वयं करते हुए मुझे लेखन-कार्य के लिए स्वतंत्र रखा।

प्रिय पाठको ! कमियाँ, भूलें और त्रुटियाँ ही इंसानों को इंसान प्रमाणित करती हैं। श्रेष्ठतम् इन्सान वही है, जो उन तमाम भूलों को दुबारा नहीं भूले। इस पुस्तक में नये सुझाव, नवीनीकरण, शुद्धिकरण, परिवर्तन, अभिवर्द्धन जो भी आप आवश्यक समझें, उन्हें अवश्य मुझ तक पहुँचावें ताकि अगले संस्करण में आपके सुन्दर विचारों का लाभ उठा सकें।

आपकी शिकायत, सुझाव, व पसन्द के पत्रों की दीघZकालीन प्रतीक्षा में आपका स्नेही यह अमृत `वाणी´ अपलक प्रतीक्षारत है। इसका द्वितीय भाग सृजन के दौर से गुजर रहा है, वह भी शीघ्र ही आपके कर-कमलों में होगा।

मैं चाहता हँू कि आप सभी के भवन सभी प्रकार से सुख देने वाले हों, धन-धान्य के भण्डार भरे रहें और ऊँचाईयाँ सदैव बढ़ती रहें। एक कुण्डली के द्वारा उक्त सुविचारों को यँू प्रकट करना चाहूँगा।

मंजिल यँू बढ़ती रहे, बने वह विजय-स्तम्भ
अजातशत्रु सभी यहाँ, बने प्रकाश-स्तम्भ ।।
बने प्रकाश-स्तम्भ, जगत सौ-सौ सुख पावें
समझ कर वास्तु-ज्ञान, स्वर्ग-सा सदन बनावें ।।
कह `वाणी´ कविराज, होय सभी पल-पल सफल
कष्ट कभी ना होय, हो कामयाब हर मंजिल ।।

अमृत `वाणी´

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